मुसलमानों के आने से पहले ईरान में जो धर्म था उसे पारसी या Zoroastrian कहते हैं। ईरान पर अरब के मुसलमानों के आधिपत्य के बाद इस धर्म के अनुयायियों की संख्या और उनके प्रभाव में बड़ी तेजी से ह्रास हुआ और तीन चार सौ साल में ही ईरान में ही वे लुप्तप्राय से हो गये। विशेषकर धार्मिक उत्पीड़न के कारण उन्हें अपना अस्तित्व बचाने में दिक्कत हुई और इस कारण उनमें से अधिकतर लोग भागकर भारत आ गये। उन दिनों जो लोग अपनी बहुत से कष्ट सहकर अपनी मातृभूमि में ही रहते रहे उनमें से भी बहुत से लोगों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अपना देश छोड़ना पड़ा। यह जानना दिलचस्प है कि उन्नीसवीं शताब्दी में भी बहुत से पारसी ईरान छोड़कर भारत आने को मजबूर हुए और आज भी वे अपने सरनेम में ईरानी लिखते हैं।
पारसी का इस्लाम पूर्व का इतिहास बड़ा गौरवमय है। उनके महान राजा कुरुष(साइरस) ने महान ईरानी साम्राज्य खड़ा किया था जिसने दो सौ वर्षों से अधिक समय तक पूरे पश्चिम एशिया और मिस्र के क्षेत्रों पर पूरी कुशलता से और एक ऐसी उदारता के साथ राज्य किया जो उनके पूर्व के साम्राज्यों में कभी भी नहीं देखी गयी थी।
उसके द्वारा स्थापित हखामशी वंश की सत्ता को सिकन्दर ने नष्ट कर डाला पर यूनानियों का राज्य भी ईरान में बहुत स्थायी न रहा। सौ साल बाद पार्थियन(पह्लव) नाम की अर्ध ईरानी जाति ने उनके राज्य को समाप्त कर दिया। पार्थियनों के चार सौ वर्ष बाद सासानी वंश आया जिसने इस्लाम आने से पहले तक ईरान पर राज्य किया।
इस वंश ने पारसी धर्म को राजधर्म घोषित किया था और इसी वंश में महान शासक नौशेरवाँ हुआ था। इस वंश ने ईरान की राष्ट्रीय संस्कृति की रक्षा की और रोमनों से पश्चिम एशिया की हमेशा रक्षा की। ईरान के राष्ट्रवादी आज भी इसे श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं।
पारसी धर्म के अनुयायियों की संख्या आज बहुत ही कम है पर ऐतिहासिक और वैचारिक रूप से यह संसार के महत्वपूर्ण धर्मों में है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं।
पारसी धर्म वैदिक धर्म से मिलता जुलता धर्म
१- पारसी धर्म विभिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण प्राचीनकाल से लेकर अब तक काफी बदल चुका है पर मूल रूप में यह वैदिक धर्म से मिलता जुलता धर्म था। अवेस्ता में अभी भी बहुत से छन्द ऐसे मिल जाते हैं जिनकी भाषा में मामूली परिवर्तन करके उन्हें वैदिक मन्त्रों का समरूप बनाया जा सकता है। अवेस्ता में इन्द्र, देव व गन्धर्व जैसे अलौकिक सत्ताओं की बात कही गयी है यद्यपि इन्हें राक्षसी प्राणी कहा गया है। अहुरमज्द जो प्राचीन ईरान के परमपूज्य देवता का नाम है वास्तव में वैदिक शब्द ‘वरुण मेधस्’ (बुद्धिमान वरुण) का रूप है। मित्र नाम के देवता जिन्हें वेदों में बारह आदित्यों में से एक माना गया है प्राचीन ईरान में ‘मिथ्र’ नाम से बहुत ही लोकप्रिय थे।
इतिहासकारों का मानना है कि प्राचीन काल में भारतीय व ईरानी आर्य एक साथ रहते थे। कालान्तर में दोनों में धार्मिक कटुता बढ़ गयी जिसके कारण एक के देवता दूसरे धर्म के आसुरी प्राणी हो गये।
२- ईरान के प्राचीन धर्म को व्यवस्थित करनेवाले महापुरुष जरथ्रुष्ट थे। उनके जन्म के समय के बारे में मतभेद है पर अधिकतर स्वीकृत विचार यह है कि उनका जन्म गौतमबुद्ध के समय से बहुत पहले न हुआ होगा। यह माना जाता है कि जरथ्रुष्ट ने पुराने धर्मग्रंथों के पाठ को अपने धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार व्यवस्थित किया और ईरान के तत्कालीन धर्म की उन सांस्कृतिक विशेषताओं को सुरक्षित रखा जो उनसे असङ्गत नहीं थीं। यह मानने के लिए पर्याप्त आधार है कि जरथ्रुष्ट के समय में ईरानी धर्म का स्वरूप काफी परिवर्तित हुआ होगा।
३- पारसी धर्म इस मामले में एकदेववादी कहा जा सकता है कि वह केवल एकमात्र अहुरमज्द की पूजा पर जोर देता है तथापि वह इस तरह से दूसरे देवताओं की पूजा का विरोधी नहीं है जिस प्रकार से इस्लाम और ईसाई धर्म हैं। इस्लामपूर्व ईरान के पूरे युग में अहुरमज्द के साथ मिथ्र जैसे देवताओं व अनाहिता जैसी देवियों की पूजा भी होती रही।
४- पारसी धर्म की सबसे प्रसिद्ध विशेषता उसका द्वैतवाद है। पारसी धर्म के अनुयायियों का मानना है कि संसार शुभ और अशुभ के बीच रणक्षेत्र है और मनुष्य का दायित्व है कि वह शुभ के लिए संघर्ष करे। वे यह मानते हैं कि संसार की सारी वस्तुएँ और सारे लौकिक और अलौकिक प्राणी भी शुभ व अशुभ में विभाजित हैं। जो वस्तुएँ या प्राणी मनुष्य का भला करते हैं वे शुभ हैं और जो उसका नुकसान करते हैं वे अशुभ हैं।
प्राचीन पारसी धर्म में अहुरमज्द को शुभ और अशुभ से परे माना गया था। यह माना जाता था कि अहुरमज्द की दो शक्तियाँ स्पैतमन्यू और अंग्रमैन्यू क्रमशः शुभ और अशुभ के लिए संघर्षरत रहती हैं। दोनों की मदद के लिए प्रत्येक की सात अलग अलग शक्तियाँ कार्यरत रहती हैं। अंग्रमैन्यू की मदद इन शक्तियों के अतिरिक्त देव भी करते हैं जिनमें इन्द्र भी हैं। बाद में यह माना जाने लगा कि जो अशुभ शक्ति है वह सीधे अहुरमज्द की विरोधी है और अहुरमज्द और उनके विरोधी के रूप में अहरीमान क्रमशः शुभ और अशुभ के लिए संघर्षरत माने जाने लगे। इस प्रकार से विकास में पारसी धर्म का बौद्धिक ह्रास हुआ पर उसकी नैतिक शक्ति बनी रही।
यह द्वैतवाद पारसी धर्म की मौलिक देन थी। यह माना जाता है कि यहूदी धर्म में शैतान की जो धारणा है वह पारसी धर्म के प्रभाव के कारण ही आयी है। यहूदी धर्म से ही ईसाई और इस्लाम धर्म में शैतान की धारणा आयी है।
५- पारसी धर्म की यह मान्यता थी कि मृत्यु के बाद मनुष्य को अपने कर्म का फल परलोक में भोगना पड़ता है। पुण्यात्मा मनुष्य स्वर्ग में निवास करते हैं जबकि पापियों को नर्क की आग में जलाकर शुद्ध किया जाता था। शुद्ध होने के बाद पापी मनुष्य भी स्वर्गवास का अधिकारी हो जाता था। इस प्रकार जरथ्रुष्टियों के विचार में शाश्वत स्वर्ग मनुष्य की नियति होती थी और क्षणिक रूप से नर्क की आग में जलना पापियों के कर्मों का फल होता था। वे यह भी विश्वास रखते थे कि एक समय सृष्टि में अनाचार बहुत बढ़ जाएगा। उस समय एक मसीहा का उदय होगा जो पापियों का संहार करेगा और शाश्वत शुभ के राज्य की स्थापना करेगा। इसके बाद सभी मृतकों को फिर से जीवित किया जाएगा और उनका अन्तिम न्याय होगा। यह माना जाता है कि अब्राहमी धर्मों में जो भी स्वर्ग और नरक, मसीहा तथा अन्तिम न्याय का विचार है वह मूल रूप से पारसी धर्म की ही देन है।
६- पारसी धर्म में अग्नि, जल, वायु और भूमि को प्राकृतिक तत्त्वों के रूप में पवित्र समझा जाता है। इन्हें अपवित्र करना इस सीमा तक बुरा समझा जाता है कि पारसी अपने शवों का न तो दाह करते हैं न ही उन्हें जल में प्रवाहित करना अथवा भूमिसात् करना उचित मानते हैं। पुराने समय में बस्तियों से दूर एक निश्चित स्थान पर शव को खुले में छोड़ दिया जाता था ताकि जंगली जानवर खाकर शव को समाप्त कर दें। इस स्थान को दीवार से घेर कर सीमांकित कर दिया जाता था और इसे दखमा कहते थे। पारसी लोग इस रीति के बारे में इतने कट्टर थे कि पुराने ईरान में अन्य धर्म के अनुयायियों को भी शवों को भूमिसात् करने अथवा दाहकर्म या जल में विसर्जन द्वारा शवों का अन्तिम संस्कार करने की अनुमति नहीं थी। ईरान पर मुस्लिम प्रभुता स्थापित होने के बाद दखमा पर कई तरह के प्रतिबन्ध लग गये और तभी से शवों को ऊँची इमारतों की छत पर रखकर उनका दखमा के रूप में प्रयोग करने की प्रथा आरम्भ हुई। वर्तमान में दखमा इसी प्रकार की होती हैं। इस प्रकार की ऊँची इमारतों को वर्तमान काल में नीरवता की मीनार (tower of silence) कहते हैं।
७- पारसी लोग अग्नि को बहुत पवित्र मानते हैं और उन लोगों में दिन में पाँच बार अग्नि में सुगन्धित द्रव्यों का होम करना धार्मिक चर्या का अनिवार्य अङ्ग समझा जाता है। (इस्लाम के पाँच बार नमाज पढ़ने की प्रथा पर सम्भवतः इसी का प्रभाव हे।) इसी हवन के दौरान अग्नि को अपनी साँस से अपवित्र न होने देने के लिए होमकर्ता अपने मुख पर कपड़ा बाँधें रहते हैं।
अग्नि को विशेष महत्व देने के कारण पारसी को बहुधा अग्निपूजक कहा जाता है पर यह कथन भ्रामक है। पारसी भगवान अहुर मज्द की पूजा करते हैं न कि अग्नि की। अग्नि में हवन करना मात्र उनका कर्मकाण्ड है। यह अग्नि की पूजा नह
८- पारसी धर्म में पीले कुत्ते को बहुत पवित्र माना जाता है। जिस प्रकार से सनातन धर्म में मरणासन्न व्यक्ति के हाथ से गोदान कराना श्रेष्ठ माना जाता है उसी प्रकार पारसी धर्म में मुमुर्षु को पीले कुत्ते का दर्शन कराना बहुत अच्छा समझा जाता है।
९- पुराने पारसी धर्म में पुरोहितों का एक विशेष वर्ग था जिसे मागी कहते थे। भारत के जाति आधारित समुदायों की तरह यह भी एक जन्म आधारित समुदाय था और इनकी अपनी विशिष्ट प्रथाएँ व संस्कृति थी। ये लोग उस समय के समाज में बहुत आदरणीय समझे जाते थे और बाहर के देशों में भी इन्हें ज्ञानी व सिद्ध पुरुष समझा जाता था। अंग्रेजी का जो magic शब्द है वह वास्तव में ‘मागी’ शब्द से ही बना है।
पारसी लोग कभी अपने धर्म के प्रचार के इच्छुक नहीं रहे इसलिए पारसी धर्म मुख्य रूप से ईरान तक ही सीमित रह गया। पर जब तक यह शक्तिशाली रहा तब तक ईरान में दूसरे धर्मों जैसे ईसाई धर्म का प्रचार नहीं हो पाया क्योकि ईरानी लोग पारसी धर्म को अपना राष्ट्रीय धर्म मानकर उससे गहराई से जुड़े हुए थे। किन्तु ईरान पर मुस्लिम अरबों के कब्जे (६५१ ई०) के बाद स्थिति बदल गयी। राजशक्ति द्वारा किये जानेवाले पारसी धर्म के दमन और शिया सम्प्रदाय को ईरान की राष्ट्रीयता से जोड़ने की प्रवृत्ति के कारण पारसी धर्म के लिए ईरान में अपने अस्तित्व की रक्षा करना असम्भवप्रायः हो गया। चूँकि पारसी लोग मुस्लिम या ईसाई देशों में वहाँ की धार्मिक असहिष्णुता के चलते नहीं जा सकते थे अतः जो लोग प्रवास करके अपना धर्म बचा सकते थे उन्होंने भारत का रास्ता पकड़ा। अन्य लोगों को इस्लाम धर्म स्वीकार करके अपने जीवन और सम्मान की रक्षा करनी पड़ी।( यद्यपि ईरान में कुछ पारसी अभी शेष भी हैं पर उनकी सङ्ख्या नगण्य है अतः हम उन्हें सामान्य प्रवृति का अपवाद ही मान सकते हैं।)
इस्लाम के आगमन से पहले ईरान में प्रचलित रहे पारसी धर्म के मुख्य तथ्य ये ही हैं। मेरे विचार से इस महान धर्म का उसकी अपनी जन्मभूमि में लोप होना विश्व इतिहास की सर्वाधिक दुःखद घटनाओं में से एक है
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