Why Shiv left Kashi : काशी का हिंदू धर्म में बहुत ही अधिक महत्व है। काशी का सबसे पहले उल्लेख अथर्ववेद के पिप्लाद शाखा में मिलता है। ज्ञान संहिता के अनुसार कर्मणा कर्षणात सा वैकसशीति परिकथ्यते अर्थात को पापों का क्षय करदे वही काशी है | इसके बाद जावाल उपनिषद में काशी को अविमुक्त की संज्ञा देते हुए कहा गया है कि जहां लोग भक्ति की कामना से आकर उसे प्राप्त करें वही काशी है। why shiv left kashi
शिवपुराण में उल्लेख है कि जब भगवान शिव की पत्नी माता सती अपमानित होकर अपने पिता दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर सती हो गई तो शौक में भगवान उनका शरीर लेकर विभिन्न स्थानों में घूमते रहे। मणिकर्णिका घाट के पास ही माता सती का सिर टूट कर गिर पड़ा।लगाव के कारण शिव जी ने इसको अपना निवास स्थान बना लिया तथा शिव के गण भी अपने भगवान के साथ वही रहने लगे। उस समय इस स्थान का नाम गोरीमुख हुआ। why shiv left kashi
मणिकर्णिका घाट की 1922 में ली गई तस्वीर
महाभारत के अनुशासन पर्व में वर्णित है कि धन्वन्तरी के पुत्र केतुमान काशी के राजा थे तथा हैहय पुत्रों ने उनको युद्ध में मार दिया | इसके बाद भीमरथ काशी के राजा बने लेकिन उनको भी हैहय गणों द्वारा मार दिया गया | उसके पास दिवोदास काशी के राजा बने | उन्होंने काशी में तप करके भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करके उनसे वरदान में मांगा कि देवता आकाश में चलें जाये और नगादी पताल में रहकर पृथ्वी पर ना आयें। इसको सुन कर शिव जी ने अपना लिंग काशी में स्थापित किया और अपने गणों के साथ पृथ्वी छोड़कर मंदराचल चले गये | why shiv left kashi
इसके पश्चात उल्लेख है कि महादेव पार्वती से विवाह करके अपने ससुराल हिमालय में ही निवास कर रहे थे। एक दिन उमा की मां ने भगवान शिव की निंदा कर दी। इस बात से दुखी होकर माता उमा ने भगवान शिव से कहा कि मैं अब यहां नहीं रह सकती। मुझे अपने घर ले चलें तथा इस पर शिवजी ने अपनी प्रिय भूमि काशी चलने का विचार किया। लेकिन उस समय काशी में देवदास राज कर रहे थे | भगवान शिव जी ने अपने गणों को देवदास को वहां से हटाने के लिए आदेश दिया। अपने भगवान के आदेश को पूरा करने के लिए उन्होंने काशी जाकर कुण्डनाद नामक नाई को अपना शिष्य बनाया और कल्याण हेतु नगर के द्वारप्रान्त में गणपति जी की मूर्ति स्थापना करने को कहा , आदेश पाकर कुण्डनाद ने निकुम्भ (गणपति) की मूर्ति की स्थापना की | why shiv left kashi
दुर्गाकुण्ड मन्दिर , वाराणसी
अपनी पूजा कर काशीवासियों को वे वरदान देने लगे , लेकिन दिवोदास राजा की रानी को एक पुत्र मांगने का वरदान नहीं मिला। इस बात पर क्रोधित होकर राजा ने निकुम्भ के स्थान को नष्ट कर दिया | निकुम्भ ने इस बात पर शाप दिया कि काशी जनशून्य हो जाये । तब राजा ने गोमती गंगा के संगम पर विराट नाम की एक नई नगरी बसाई तथा वही रहने लगा। इसके बाद में भगवान शिव ने माता पार्वती से विमर्श करके दिवोदास को धर्मच्युत करने के लिए चौसठ योगनियाँ भेजी, लेकिन काशी के तेज और दिवोदास की धर्म परायणता के कारण कुछ ना बिगाड़ सकीं । सूरज ने आकर अपने रूपों का प्रभाव डालने की कोशिश की लेकिन वह भी असफल था | शिवजी ने धीरे-धीरे समस्त देवताओं को काशी भेजा लेकिन कोई भी दिवोदास को काशी से नहीं हटा सका | अंत में शिवजी ने गणेश जी को ज्योतिषी के रूप में भेजा तथा इस पर दिवोदास गणेश जी की विद्या को देखकर बहुत प्रसन्न हुए।
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गणेश जी ने राजा को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया और इसे पाकर राजा का धीरे धीरे अपने राज्य से मोह हटने लगा । उसने गणेश जी से मोक्ष प्राप्ति के लिए सुझाव माँगा । तब गणेशजी जी ने कहा, उत्तर से एक ब्राह्मण आएंगे उनके उपदेश से आपको मोक्ष प्राप्त होगा। इसके पश्चात् विष्णु ने आकर राजा को उपदेश दिया और काशी में शिवलिंग स्थापना करने को कहा , दिवोदास ने विधिपूर्वक शिवलिंग स्थापित किया। तब जाकर शिव जी, पार्वती सहित काशी में पधारे और इसमें आचार्य का कार्य विष्णु जी ने किया। अंत में देवदास ने वरुणा और अस्सी का भाग देवताओं को समर्पित करके मोक्ष प्राप्त किया।
Source : 44books.com