Rani Avantibai Of Ramgarh
रानी अवन्ती बाई का जन्म 16 अगस्त, 1831 को मध्यप्रदेश के जिला सिवनी के गांव मनकेहणी में जमींदार रावजुझार सिंह के घर हुआ। 1817 से 1851 तक रामगढ़ राज्य के शासक लक्ष्मण सिंह थे।उनके निधन के बाद विक्रमाजीत सिंह ने राजगद्दी संभाली। इनका विवाह अवन्ती बाई से हुआ।अपने पति के साथ राज्य संचालन का काम रानी अवन्ती बाई करती रहीं। प्रचलित कथाओं के अनुसार, देवहारगढ़ में अंग्रेजों से युद्ध में लड़ते-लड़ते अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए रानी दुर्गावती के पद चिह्नों पर चलते हुए रानी अवन्ती बाई ने कथित तौर पर 20 मार्च, 1858 को स्वयं को कटार मार ली, लेकिन अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं किया। उन्होंने अपना जीवन मातृभूमि के लिए बलिदान कर दिया।रानी अवन्ती बाई की वीर गाथा देश में लोकगीतों के माध्यम से आज भी गूँज रही है। रामगढ़ रियासत की आमदनी लगभग 13-14 हजार रुपये वार्षिक थी।गांवों की संख्या 732 थी, जिसमें 290 वीरान थे।अंग्रेज सरकार को रियासत उबारी में 2946-1-10 रुपये भुगतान करती थी। विक्रमाजीत के दादा गाजी सिंह को रामगढ़, तालु का गढ़ामण्डला के राजा निजाम शाह ने 1857 से पूर्व लगभग सौ वर्ष पहले जागीर में दी थी। 1780 में रामगढ़ के तत्कालीन राजा सागर के मराठों के अधीन हो गए।1818 में मराठा राजा अंग्रेजों के अन्तर्गत आ गए।हालांकि अंग्रेजों ने रामगढ़ का तालुका रामगढ़ के राजा के पास ही रहने दिया। 1819-20 के बन्दोबस्त द्वारा राजा से उबारी पट्टे पर प्रत्येक वर्ष दो हजार रुपये लेना तय कर दिया किया। लॉर्ड डलहौजी के समय रामगढ़ में विक्रमाजीत राजा थे।रामगढ़ के राजाविक्रमा जीत सिंह को विक्षिप्त तथा दोनों पुत्रों अमान सिंह और शेर सिंह को नाबालिग घोषित कर रामगढ़ राज्य को हड़पने की दृष्टि से अंग्रेज शासकों ने “कोर्ट ऑफ वार्ड्स” की कार्यवाही की, जिससे रामगढ़ रियासत कोर्ट ऑफ वार्ड्स के कब्जे में चली गयी। विक्रमाजीत की पत्नी रानी अवन्ती बाई को अंग्रेज सरकार की कार्यवाही उचित नहीं लगी।उनका मानना था कि पति के मस्तिष्क खराब होने पर भी वह स्वयं रामगढ़ की रियासत संभाल सकती हैं।1855 ई. में राजा विक्रमाजीत सिंह की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी।जिसके बाद नाबालिग पुत्रों की संरक्षिका के रूप में राज्य-शक्ति रानी के हाथों में आ गयी।रानी ने राज्य के कृषकों को अंग्रेजों के निर्देशों को न मानने का आदेश दिया, इस सुधार कार्य से रानी की लोक प्रियता बढ़ी। 1855 में कोर्ट ऑफ वार्ड्स का विक्रमा जीत पर 18 हजार रुपये कर्ज था।हालांकि कोर्ट ऑफ वार्ड्स को लगभग 15 हजार रुपये चुका दिये गए थे।लेकिन अभी भी ब्याज मिला कर चार हजार रुपये देने शेष थे।
क्षेत्रीयसम्मेलन (मई, 1857)
Rani Avantibai Of Ramgarh
1857 में सागर एवं नर्मदा परिक्षेत्र के निर्माण के साथ अंग्रेजों की शक्ति में वृद्धि हुई ।अवन्ती बाई ने राज्य के आस-पास के राजाओं, पर गनादारों, जमींदारों और बड़े मालगुजारों का गोपनीय ढंग से एक सम्मेलन रामगढ़ में आयोजित किया।सम्मेलन में लिए गए निर्णय के अनुसार प्रचार का दायित्व रानी पर था एक पत्र और दो काली चूड़ियों की एक पुड़िया बना कर प्रसाद के रूप में वितरित करना।पत्र में लिखा गया- “अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियां पहन कर घर में बैठो।” पत्र सौहार्द और एकजुटता का प्रतीक था तो चूड़ियां पुरुषार्थ जागृत कर ने का सशक्त माध्यम बनी।पुड़िया लेने का अर्थ था अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति में अपना समर्थन देना।रानी के इस पत्र ने देशी राजाओं को अंग्रेजों के विरूद्ध तलवार उठाने और प्रतिकार करने के लिए प्रेरित किया। स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य रूप से शाह पुराके ठाकुर विजय सिंह थे।उनके साथ रानी अवन्तीबाई के पुत्र अमानसिंह, नारायण पुर के मूरतसिंह व चैन सिंह और राम गढ़ की रानी के दो भाई अमोरिती दादू और सीता राम दादू थे ।अंग्रेजों के नजर में भी विजय सिंह एक महान योद्धा थे। 1857 – स्वतंत्रता संग्राम के क्रम में दिल्ली और मेरठ में उठ चुकी प्रतिरोध की चिंगारी का समाचार जबल पुर पहुंचा।जिसकेबाद 19 व 20 मई को क्रांतिकारियों में उबाल देखने को मिला।झांसी में 08 जून कीघटनाओं का समाचार भी पहुंचा। 01 जुलाई को सागर में हुए सैनिक संग्राम का समाचार प्राप्त हुआ। जबल पुर में उन दिनों अंग्रेज सरकार की 52 वीं बटालियन की कंपनियां थीं।संभावित संकट से आशंकित कमिश्नर मेजर एर्जकाइन ने 18 जुलाई को एजेन्सी हाउस के पहरे की स्थिति सुदृढ़ कर दी।अंग्रेज सरकार के खिलाफ जबलपुर में भी आवाजें गूंज ने लगीं।जुलाई माह के अंतिम दिनों में मण्डला में विरोध के स्वर सुनाई पड़ने लगे।मण्डला पर गना के एक माल गुजार ने यह कहते हुए लगान चुका ने से मनाकर दिया कि अंग्रेजी राज चला गया है।अंग्रेज सरकार के मुताबिक, गरुल सिंह ने राजस्व चुकाने से इन्कार कर दिया था।
Rani Avantibai Of Ramgarh
सोहाग पुर तहसीलदार ने 29 जुलाई को वाडिंगटन को सूचना दी कि सोहाग पुर खास की रानी सुलो चना कुंवर का सर वरा हकार और निकट संबंधी गरुलसिंह (अंग्रेजीदस्तावेजोंकागरुलसिंह) को ठीनिगवानी का तालुकेदार बलभद्र सिंह, जैतपुर का तालुकेदार जगमोहन, बलभद्र सिंह का भाई लछमन सिंह अंग्रेज सरकार के खिलाफ हो गये हैं। को ठीनिगवानी के तालुकेदार बलभद्र सिंह और सोहागपुर के तालूकेदार गरुल सिंह ने 01 सितम्बर को सोहागपुर में अंग्रेज सरकार के विरूद्ध हुंकार भरी।इसके बाद अंग्रेजों को सोहागपुर छोड़ना पड़ा। क्रांतिकारियों के बढ़ते कदम से भयाकुल सोहागरपुर तहसीलदार ने08 सितम्बर को 09 बजे रात वाडिंगटन को अवगत कराया और जान बचाकर जबलपुर भाग गया।उधर, शाहपुरा का तहसीलदार श्यामजी लाल भी बहुत ज्यादा आतंकित था।
खैरीयुद्ध
जबलपुर जिले में इमलई का राजा रामगढ़ और घुघरी के स्वतंत्रता सेनानियों के साथ हो गए। 23 नवम्बर की शाम 06 बजे मण्डला से एक मील पूर्व की ओर खैरी गांव में अंग्रेजों के विरूद्ध आग जनी हुई।डिप्टी कमिश्नर को मिलने वाली सूचना के मुताबिक , सेनानियों की संख्या 2000 थी। 24 नवम्बर को भोर में सेनानियों की सहायता के लिए जबलपुर की ओर से मुकास के ठाकुर खुमान सिंह के नेतृत्व में एक टुकड़ी आगे बढ़ रही थी।उन पर वाडिंग टन ने गोली चला दी और संग्राम शुरू हो गया, जिस में सेनानियों को विफलता हाथ लगी।अंग्रेजों ने गिरफ्तार 21 सेनानियों को तुरंत फांसी पर लटका दिया।बावजूद सेनानी मण्डला के दक्षिण व उत्तर-पश्चिम की तरफ एकत्र हो रहे थे।सेनानियों की एकजुटता देख वाडिंगटन 26 नवम्बर को सिवनी फरार हो गया। 21 जनवरी, 1858 को बुकरू भोई नामक सेनानी अंग्रेजों के चंगुल में फंस गया, जिसे तत्काल फांसी पर लटका दिया गया ।फरवरी, 1858 तक मण्डला के 10 मील की परिधि का क्षेत्र अंग्रेजों के कब्जे में नहीं था।लगभग पूरा मण्डला जिला एवं रामगढ़ राज्य स्वतंत्र हो गया।