Bhagat Ram Talwar
देशभक्ति निभाने वालों को हमेशा सम्मान मिलता है. लोग उनकी वीरता की कहानियां आने वाली पीढ़ियों को सुनाते हैं, उन पर गर्व करते हैं। लेकिन इन्हीं वीर सपूतों में कुछ ऐसे भी होते हैं जिन पर देश को हमेशा गर्व तो रहता है लेकिन लोगों तक इनकी वीर गाथाएं पहुंच नहीं पातीं. वीरता केवल जंग में लड़ने से नहीं आंकी जाती. शारीरिक बल से बड़ा होता है बौद्धिक बल व साहस. जंग के मैदान में सिपाही जान रहे होते हैं कि सामने से वार होने वाला है लेकिन कुछ वीर ऐसे भी होते हैं जो दुश्मन के खेमे में घुस कर ये पता लगाते हैं कि वार कब कहां और किधर से होने वाला है.
आज भी हमारे देश की सुरक्षा के लिए कई वीर सपूत अपना घर बार यहां तक की अपनी असली पहचान भूल कर ऐसी जगहों पर बैठे हैं जहां किसी भी वक्त उनकी मौत का फरमान सामने आ सकता है. आम भाषा में इन्हें जासूस कहा जाता है. आज एक ऐसे ही जासूस के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाज़ी ताकत सहित कई अन्य देशों को बेवकूफ बना दिया :
कौन थे भगत राम तलवार
भगत राम तलवार का जन्म 1908 में एक संपन्न पंजाबी परिवार में हुआ था। इनके पिता गुरदास मल की ब्रिटिश राज के आला अफसरों से अच्छी दोस्ती थी लेकिन 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के बाद जब अंग्रेजों का अत्यंत क्रूर चेहरा दुनिया के सामने आया तब इनके पिता भी समझ गये कि ये गोरे कभी दोस्त नहीं हो सकते. बचपन से ही भगत राम के मन में देशभक्ति की भावना जागृत हो चुकी थी. ये देशभक्ति केवल इनके अंदर ही नहीं बल्कि इनके अन्य दोनों भाइयों के अंदर भी कूट कूट कर भरी थी. इनके भाई हरिकिशन को 1930 में एक गवर्नर पर गोली चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया तथा 9 जून 1931 में उन्हें फांसी दे दी गयी. इसके बाद से तो भगत राम के अंदर देश सेवा की भावना और तेज हो गयी. उन्हें हमेशा से कुछ बड़ा करना था. आर्य समाज आंदोलन से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी तक में भगत राम ने अपनी पहचान बनाई.
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नेता जी भी थे इस शख्स के प्रशंसक
The Better India
सन था 1941 और दिन था 16 जनवरी. नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हर हालत में सोवियत संघ पहुंचना था. लेकिन ये इतना आसान नहीं था. क्योंकि ब्रिटिश सैनिक हर जगह नेता जी की गंध सूंघने में लगे हुए थे. कहते हैं वेष बदलने में नेता जी का कोई सानी नहीं था. उनकी इस कला के सामने अच्छे अच्छे मात खा जाते थे. यही वो दिन था जब कलकत्ता में बैठे नेता जी को फ्रंटियर मेल से दिल्ली पहुंचना था. सैनिकों से बचने के लिए उन्होंने पठान का भेस बनाया हुआ था. इस समय उन्हें पहचाना लगभग नामुमकिन था लेकिन स्टेशन पर मौजूद एक आदमी ने इस नामुमकिन को मुमकिन करते हुए नेता जी को पहचान लिया. निश्चित ही इस समय नेता जी ने उस शख्स की पैनी नज़र की जम कर तारीफ की होगी. नेता जी को पहचानने वाला शख्स था रहमत खान, उर्फ़ सिल्वर उर्फ़ भगत राम तलवार. वह भगत राम ही थे जिन्हें नेता जी को काबुल से निकाल कर सोवियत संघ के रास्ते जर्मनी और फिर जापान पहुंचाने की जिम्मेदारी मिली थी लेकिन लेकिन उन्हें क्या पता था कि वह नेता जी के बहाने एक ऐसा इतिहास लिखने जा रहे हैं जो पहले किसी भारतीय ने नहीं लिखा था. भारत से पेशावर पहुंचने के बाद नेता जी और भगत राम ने काबुल पहुंचने के लिए 200 किमी का पैदल सफर तय किया. यहां से भगत राम ने नेता जी के काबुल निकलने का रास्ता तैयार किया. नेता जी काबुल से मॉस्को तथा वहां बर्लिन और फिर जापान तक का सफर तय किया.
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नेता जी के जाने के बाद भगत राम भारत नहीं लौटे और काबुल में ही रहमत खान के नाम से रहने लगे. कोई जासूस किसी एक देश के लिए काम करता है लेकिन भगत राम ने नाज़ियों को भी विश्वास में लिया, रूस को बताया के वह उनके हैं, जापान से भी दोस्ती की. इटली के लिए वह खान जासूस बन गये. इसके कुछ ही महीनों बाद रहमत इटली के एक्सिस साथी जर्मनी का काम भी करने लगे. लेकिन रहमत इन दोनों के नहीं हुए क्योंकि ये देश फांसीवाद के समर्थक थे और रहमत एक पक्के कम्युनिस्ट. दिखाने के लिए वह ब्रिटिश एजेंट भी बनें तथा यहीं उन्हें नया नाम मिला सिल्वर. सबसे रोचक बात तो ये थी कि उनके ब्रिटिश कंट्रोल ऑफिसर पीटर फ्लेमिंग जो कि जेम्स बांड के रचयिता कहे इयान फ्लेमिंग के भाई थे ने ही उन्हें सिल्वर नाम दिया.
सर्वोच्च सम्मान
इतना ही नहीं जर्मनी ने उन्हें आयरन क्रॉस से सम्मानित किया जो नाज़ियों का सर्वोच्च सैन्य सम्मान था. इसके साथ ही उन्हें आज की कीमत के हिसाब से 2.5 मिलियन यूरो का इनाम भी दिया गया. लेकिन इन सबके बाद भी भगत उर्फ रहमत ने सबको चकमा दिया. मिहिर बोस की किताब सिल्वर ‘द स्पाई हू फूल्ड द नाजीज़’ में लिखा है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भगत राम ने इटली, जर्मनी, फ्रांस, रूस, ब्रिटेन, जापान देशों के लिए एक एजेंट के तौर पर काम किया. लेकिन उनका लक्ष्य केवल भारत को आजादी दिलाने का था. वह इतने देशों के लिए डबल एजेंट की भूमिका निभाने वाले पहले जासूस थे।
ज़िंदगी के आखरी पल
उनकी जासूसी का लोहा बड़े बड़ों ने माना. वह केवल दसवीं पास थे, उन्हें ठीक से अंग्रेजी भाषा का ज्ञान भी नहीं था, सबसे बड़ी बात थी कि भारतीय होने के नाते उनका रंग गेहुंआ था. फिर भी वह गोरे अंग्रेजों को मूर्ख बनाने में कामयाब रहे. कहा जाता है द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के बाद के बाद भगत राम गायब हो गये और फिर भारत की आजादी के बाद वह अपने देश लौटे. 1983 में उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में उनका निधन हो गया.