Adi Guru Shankrachrya : लोकमान्यता है कि केरल प्रदेश के श्रीमद्बषाद्रि पर्वत पर भगवान् शंकर स्वयंभू लिंग रूप में प्रकट हुए और वहीं राजा राजशेखरन ने एक मन्दिर का निर्माण इस ज्योतिर्लिंग पर करा दिया था। इस मन्दिर के निकट ही एक ‘कालडि’ नामक ग्राम है। आचार्य शंकर का जन्म इसी कालडि ग्राम में हुआ था। द्वारिका मठस्थ जन्मपत्री के अनुसार आचार्य शंकर का समय युधिष्ठिराब्द- 2631 से 2663 माना गया है। इस बात की पुष्टि वहाँ से प्राप्त प्राचीन ताम्रपत्र के द्वारा भी हुई है। उनका जन्म मालाबार क्षेत्र, पूर्णा नदी वर्तमान पेरियार नदी के किनारे बसे कालड़ी गाँव में हिन्दू कैलेंडर के अनुसार वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था | उनके पिता का नाम – शिवागुरु और माता का नाम आर्याम्बा आयु के प्रथम वर्ष में ही आदिगुरू शंकराचार्य ने संस्कृत सीखना प्रारंभ कर दिया ,तीसरे वर्ष में संस्कृत पढ़कर उनका अर्थ विशद करने लगे | पांच वर्ष की आयु में आदिगुरू शंकराचार्य का उपनयन संस्कार हुआ , 8 वर्ष की आयु में वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया ,12वर्ष की आयु तक ज्ञान की सभी शाखाओं पर अधिकार प्राप्त किया ,16 वर्ष की आयु में उन्होंने वेदांत पर भाष्य लिखा जो उनकी महानतम कृतियों में से एक है | उन्होंने ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषेदों एवं श्रीमद्भगवद्गीता़ पर भाष्य लिखे आदिगुरु शंकराचार्य ने विवेक चूड़ामणि, प्रमोद सुधाकर, पंचीकरण, प्रपंचसार तंत्र, मनीषपंचक, यतिपंचक, आत्मबोध आदि महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की |
Jagadguru Adi Shankaracharya with his four disciples – Padmapadacharya, Sureshwaracharya, Hastamalakacharya & Totakacharya
भारतवर्ष की पुण्यभूमि पर अवतरित महान् विभूतियों में आदिशङ्कर भगवत्पाद का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। देशभर में वे आद्य शङ्कराचार्य के नाम से विख्यात है। शङ्कर भगवत्पाद का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब कि सम्पूर्ण भारतवर्ष की स्थिति संकटपूर्ण तथा शोचनीय थी। देशभर को एकसूत्र में बाँधकर रखने वाला कोई सार्वभौमराजा नहीं था। देश छोटे-छोटे छप्पन से भी अधिक राज्यों में विभाजित हो गया था | सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न विसंगतियाँ थी सनातन धर्म के परिपालन में अनेक विकृतियाँ , विसंगतियां तथा कुरीतियों का प्रवेश हो गया था अध्यात्मिक क्षेत्र का संकट तो चरमबिन्दु पर था। वैदिक तथा अवैदिक बहत्तर से भी अधिक मत प्रचलित थे जिसमें अनेक परस्पर विरोधी भी लगते थे। Adi Guru Shankrachrya
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आदिगुरु शंकराचार्य का संन्यास ग्रहण
आदिगुरु शंकराचार्य एक दिन माता के साथ पूर्णा नदी में स्नान करने गए नदी में आदिगुरू शंकराचार्य का पैर मगरमच्छ ने पकड़ लिया | मगरमच्छ उन्हें पानी के अन्दर खीचनें लगा, आदिगुरु के लिए मगरमच्छ के साथ संघर्ष कर उस पर विजय पाना मुश्किल था तब उन्होंने माता आर्याम्बा से कहा, “यदि तुम मुझे संन्यास लेने की अनुमति दो तो शायद यह मगरमच्छ मुझे जीवन दान दे देगा” विवश होकर माता ने आदिगुरू शंकराचार्य को संन्यास लेने की अनुमति दे दी फिर मगरमच्छ ने आदिगुरू का पाँव छोड़ दिया संन्यास ग्रहण के समय आदिगुरू शंकराचार्य की उम्र 8 वर्ष थी | उसके बाद वह केरल से पैदल चलकर जंगल और पर्वतों को पार करते हुए गुरु गोविन्दपाद के पास पहुंचे गुरु गोविन्दपाद ने आदिगुरू शंकराचार्य को दीक्षा दी ओर वेद-वेदांगों का ज्ञान दिया यज्ञोपवीत संस्कार के समय ब्रह्मचारी प्रथम भिक्षा अपनी माँ से ही माँगता है। किन्त, आचार्य शंकर ने प्रथम भिक्षा हेतु अपने गाँव में सफाई का कार्य करने वाली महिला के सम्मुख जाकर कहा ‘माँ, भिक्षां देहि । शंकर की इस प्रथम भिक्षा ने ही संकेत दे दिया कि यह बटुक कुछ असामान्य है। ओंकारनाथ तीर्थ में नर्मदा के तट पर शंकर ने श्री गोविन्दपाद से संन्यास की दीक्षा ली और बहुत छोटी-सी आयु में ही यह तरुण संन्यासी अनेक भ्रान्तियाँ नष्ट करता हुआ, सर्वदूर अद्वैत का प्रतिपादन करता चला गया। केरल से चलकर वे उत्तर में केदारनाथ और बदरीनाथ तक आ गए, और यहाँ से दक्षिण के चिदम्बरम् तक जा पहुँचे। यह एक दार्शनिक दिग्विजय थी। भारत के इतिहास में सम्भवतया यह प्रथम अवसर था जब इतनी कम आयु होते हए भी इस महान विद्वान् ने अनेक धर्मशास्त्रों, दर्शनों, पुराणों के प्रकाण्ड पंडितों को इतनी सरलता से पराजित कर दिया था। ऐसा लगता है कि- ‘वह आता था, शास्त्रार्थ करता था और लोगों पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ जाता था। इस प्रकार यह एक नये सुधार युग का प्रारम्भ था। श्रीआद्यशंकराचार्य की व्यापक सफलता के पीछे उनकी बौद्धिक प्रतिभा, अतुलनीयकर्मठता तथा उदारता थी। उन्होंने निरर्थक कर्मकाण्डों का खण्डन किया। उनके विचार से आत्मा ही एकमात्र सत्य है और वही चैतन्य, परिमाण रहित, निर्गुण और असीम परमानन्द है। श्री शंकर के वेदान्त का आधार ‘प्रस्थानत्रयी’ अर्थात्’उपनिषद्’, ‘ब्रह्मसूत्र’ तथा ‘भगवद्गीता’ ही थे। Adi Guru Shankrachrya
आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा मठों की स्थापना
Goverdhana Matha
Vidyashankara Temple at Shringeri
View of Joshimath from Narsingh Temple
आदिगुरु शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की और प्रत्येक वेद का दायित्व हर पीठ को प्रदान किया पूर्वामण्य मठ अथवा पूर्वी मठ, गोवर्द्धन मठ (पुरी, ओडिशा) – ऋग्वेद दक्षिणामण्य मठ अथवा दक्षिणी मठ, श्री शृगेरी शारदा पीठ (शृगेरी, कर्नाटक) – यजुर्वेद पश्चिमामण्य मठ अथवा पश्चिमी मठ, श्री द्वारका शारदा पीठ (द्वारका, गुजरात) – सामवेद उत्तरामण्य मठ अथवा उत्तर मठ, ज्योतिर्मठ (जोशीमठ, उत्तराखंड) – अथर्ववेद आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने चार शिष्यों को चार मठों के मठाधिपति के रूप में नियुक्त किया दक्षिणी मठ, श्री शृगेरी शारदा पीठ में सुरेशवराचार्य पूर्वामण्य मठ अथवा पूर्वी मठ, गोवर्द्धन मठ में हस्तामलकाचार्य पश्चिमी मठ, श्री द्वारका शारदा पीठ में पदमपादाचार्य उत्तर मठ, ज्योतिर्मठ में त्रोटकाचार्य की मठाधिपति के रूप में नियुक्ति की गयी
श्रीशंकराचार्य एवं चाण्डाल का संवाद-
श्रीशंकराचार्य एवं चाण्डाल का संवाद- काशी की एक गली में श्रीशंकराचार्य तथा चाण्डाल (श्वपच) का वार्तालाप प्रसिद्ध है। आद्य शंकर काशी में गंगास्नान करने जा रहे थे, मार्ग में एक चाण्डाल रास्ता रोके खडा मिल गया | शरीर से दुर्गन्ध आ रही थी तथा कमर से चार कुत्ते भी उसने बाँध रखे थे। श्री शंकराचार्य के शिष्यों ने उसे दूर हटने को कहा; इस पर श्वपच, भगवत्पाद शंकराचार्य से पूछता है। ‘महाराज! सर्वात्मैक्य तथा अद्वैत का सन्देश देने वाले आप किसे ‘गच्छ दूरमिति’ कहकर दूर हटने को कह रहे हैं? चाण्डाल प्रश्न करता है:
अन्नमयादन्नमयं अथवा चैतन्यमेव चैतन्यात्।
यतिवर दूरीकर्तुं वाञ्छसि किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति।।
-(शङ्करज्योति, पृ. 10) Adi Guru Shankrachrya
अर्थात् ‘यतिवर ! बताइये आप किसे दूर जा, दूर जा कह रहे हैं ? अन्न-निर्मित एक शरीर को, अन्न-निर्मित दूसरे शरीर से दूर जाने के लिए कह रहे हैं. या एक चैतन्य स्वरूप को दूसरे चैतन्य स्वरूप से दूर करना चाहते हैं? क्या अभिप्राय है आपका?’ श्वपच ने शंकराचार्य से आगे पूछा :
किं गङ्गाम्बुनि बिम्बितेऽम्बरमणौ चाण्डालवापीपयः।।
पूरेऽप्यन्तरमस्ति काञ्चनघटीमृत्कुम्भयोश्चांबरे॥
प्रत्यग्वस्तुनि निस्तरङ्ग सहजानन्दावबोधाम्बुधौ।
विमोऽयं श्वपचोऽयमित्यपि महान् कोऽयं विभेदभ्रमः॥
अर्थात ‘गङ्गा की धारा या चाण्डालों की बस्ती में स्थित बावड़ी के पानी में प्रतिबिम्बित में होने वाले सूर्य के बीच क्या कोई अंतर है ? आत्मसत्ताआत्मसत्ता में जो सहज-आनन्द और ज्ञान का तरंगहीन महासागर है, उसमें यह ब्राह्मण है और यह श्वपच है इस प्रकार भिन्नता की यहबडी भ्रान्ति कैसी है?’ श्वपच ने शंकराचार्य से पुनः प्रश्न किया:
अर्थात ‘अचिन्त्य, अव्यक्त, अनन्तआद्य, उपाधिशून्य सभी शरीरों में रहनेवाले एक पूर्ण अशरीरी पुराण पुरुष की इस प्रकार उपेक्षा आप क्यों कर रहे है ?
श्रीशङ्कर द्वारा चाण्डाल को गुरु रूप में स्वीकार करना-
श्रीशङ्कर द्वारा चाण्डाल को गुरु रूप में स्वीकार करना- इन वचनों को सुनकर श्री शंकराचार्य को अपने शिष्यों की भूल का बोध हुआ तथा उन्होंने चाण्डाल को गुरु स्वीकार किया तथा हाथ जोड़कर प्रणाम निवेदन किया और अपने मनोभाव को व्यक्त करते हुए कहाः
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटतरा या संविदुज्जूभते या ब्रह्मादिपिपीलिकान्ततनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी।
सैवाहं न च दृश्यवस्त्विति दृढ़प्रज्ञापि यस्यास्ति चेत्
चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम॥
अर्थात् ‘जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में, जो शुद्ध चैतन्य स्पष्ट दिखता है, जो ब्रह्मा से लेकर पिपीलिका (चींटी) तक सभी प्राणियों के शरीर में विद्यमान है, वही मैं हूँ, ऐसी दृढ़ता से जिसकी प्रज्ञा हो, वह चाण्डाल हो या द्विज मेरा गुरु है, ऐसा मैं समझता हूँ।’ श्री शंकराचार्य ने आगे कहाः
ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं.
सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाऽशेषं मया कल्पितम्।
इत्थं यस्य दृढ़ा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले
चाण्डालोऽस्तु स तु द्विजोऽस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम॥
अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूँ, यह सारा जगत् भी ब्रह्म है, उस ब्रह्म का ही विस्तार है, त्रिगुणात्मक (सत्व, रजस्, तमस्) अविद्या के कारण कल्पित हैं, ऐसा जानकर जो नित्य, निर्मल परमानन्द ब्रह्म में दृढ़ चित्त हो, वह चाण्डाल हो या द्विज मेरा गुरु है, ऐसा मैं समझता हूँ।’ इस प्रकार मनीषा पंचकम् के पाँच श्लोक बोलते हुए श्री शंकर के मुख से पाँचवीं बार ‘मनीषा मम’ इन शब्दों के समाप्त होते ही श्री शंकराचार्य को ऐसा आभास हुआ कि विद्वान् चाण्डाल तो साक्षात् शिव रूप ही हैं। श्री शंकराचार्य ने चाण्डाल को शिव मानकर प्रणाम किया। वास्तव में देखा जाय तो यह घटना मनीषा पचकम्’ की रचना के लिए मात्र एक भूमिका रही होगी। भगवान् विश्वनाथ ने एक दृश्य रचकर आचार्य शंकर को इस निमित्त प्रेरित किया। अब सच्चे अर्थों में सर्वात्मैक्य तथा अद्वैत का भाव श्री शंकराचार्य के मन में जग चुका था। प्राणीमात्र की समानता के मौलिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक जगत में उतारने के लिए उन्होंने नवीन व्याख्याएँ दीं। आघ शंकरचार्य को एक नया बोध हआ. किसी भी शरीर से घृणा करना उचित नहीं। इस घटना ने उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ दिया। सभी प्राणियों के अन्दर आधारभूत समानता के सिद्धान्त को नई परिभाषा मिल गई। ‘भजगोविन्दम’ में श्री शंकराचार्य कहते हैं : Adi Guru Shankrachrya
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥
(The Hymns of Sankara, Page-69)
अर्थात ‘सभी के अन्दर अपने आप को ही देखो तथा भेद (अन्तर) उत्पन्न वाले अज्ञान को छोड़ दो।’ श्री शंकराचार्य ने इस मौलिक तत्वज्ञान को स्पष्ट किया कि सभी के अन्दर एक ही ब्रह्म है। ‘अपरोक्षानुभूति’ में वे प्रकट करते हैं:
ब्रह्मणः सर्वभूतानि जायन्ते परमात्मनः।
तस्मादेतानि ब्रह्मैव भवन्तीत्यवधारयेत् ।।(भारत के संत-महात्मा, पृ. 67)
अर्थात् ‘सम्पूर्ण भूत परमात्मा ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं, अतएव ये सब ब्रह्म ही हैं ; ऐसा निश्चय के साथ कहना चाहिए।’ आद्य शंकराचार्य ने जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया उसके अनुसार सभी पदार्थों से तटस्थ भाव ही सर्वोतम योग-स्थिति है। संसार के मिथ्यात्व का चिन्तन ही सर्वोत्तम साधना है। श्री शंकराचार्य ने बौद्ध और शैवों की अनेक बातों को त्यागकर उनके मुख्य सिद्धान्तों को स्वीकार कर लिया। आचार्य शंकर का ‘आत्मतत्व’ किसी भी प्रकार के वर्णन, तर्क, इन्द्रियबोध तथा सम्बन्धों से दूर है। और सभी प्राणियों में इसकी व्याप्ति समान है। वह तो जातिभेद, पिता, माता, बन्धु, मित्र, गुरु, शिष्य आदि सभी भेदों से ऊपर है। विश्व के सभी दर्शनों के सम्मुख एक सुन्दर उदाहरण रखते हुए वे उस निराकार, निर्विकल्प, आत्मतत्व का वर्णन ‘निर्वाणाष्टकम् में इस प्रकार करते हैं: Adi Guru Shankrachrya
न मृत्युर्न शङ्का न मे जाति भेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्मः।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ।।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपोविमुक्तश्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।।
न चासंगते नैव मुक्तिर्न बन्धश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्||
– (भारत की संस्कृति और कला, पृ. 234)