मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी
मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी

मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी , मृतु भोज का महत्व – क्यूँ नहीं करना चाहिए विरोध

मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी : मृत्युभोज का मुद्दा पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। फेसबुक और वॉट्सएप पर लम्बी बहस चल रही है। सबके अपने-अपने तर्क हैं। कई विद्वानों का मानना है कि यह एक सामाजिक बुराई है। इसे बंद किया जाना चाहिए। हालातों पर नजर डालें तो आज वाकई में यह बड़ी बुराई बन चुका है। अपनों को खोने का दु:ख और ऊपर से तेहरवीं का भारी भरकम खर्च..?

इस कुरीति के कारण कई दुखी परिवार कर्ज के बोझ में तक दब जाते हैं, जो सभी के मन को द्रवित करता है। लेकिन जो हो रहा है इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। मृत्यु भोज के पीछे तो हमारे मनीषियों की सोच कुछ और ही रही है, जो मनोवैज्ञानिक है..।

वास्तव में यह एक अनूठी व्यवस्था है, जिसे दिखावे के चक्कर में हमने ही विकृत कर डाला है। इसमें ऐसे रहस्य छिपे हैं जिन्हें जानकर आप चौंक जाएंगे और यह मानने पर बाध्य होंगे कि यह व्यवस्था सही थी। वक्त के साथ इसमें जो विकृतियां आई हैं, बस इन्हें दूर करके इसे मूल स्वरूप में पुन: स्थापित किया जा सकता है। मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी 

समझें मृत्युभोज की अनिवार्यता को–

अनिवार्य नहीं कि मृत्युभोज वृहद स्तर पर किया जाये , हम आधुनिकता में इतने रम चुके है कि अपने पितरों के प्रति अपने दाईत्व से विमुख होते जा रहे हैं।

धर्म को भी आज हमने मूल स्वरूप से हटाकर भौतिक परिधान में ढक दिया हैं जब विवाह आदि आयोजन में कर्ज लेकर बेंड बाजा स्टेज रिशेप्शन करवाते हैं औऱ मूल विधान को छोटा कर दिया वहाँ कोई विरोध नहीं करता , पितरो के प्रति हमारे दाईत्व को हम पूर्ण करने से क्यों कतराते हैं जहाँ दुःख के पल में व्यक्ति को मनोबल हिम्मत की सहारे की आवश्यता हैं वहाँ हमने जाना बंद कर दिया मृत्यु भोज करना कोई पाप नहीं पूण्य होता हैं , मृतजन के परिजन को द्वादशा में अपनी उपस्तिथि देकर आपके पुण्यों में वृद्धि ही होती हैं उसका समाज परिजन के प्रति विश्वास दृण होता हैं उसमें आत्मबल की वृद्धि होती हैं , रही बात व्यय की तो मृतजन के परिजन को उस अवस्था में सबसे बड़ी वस्तु आपसे प्राप्त हिम्मत मनोबल की होती हैं ।

लोगों से कहते सुना हैं मृत्युभोज से पुण्य क्षीण होता हैं , ये बात सत्य हैं औऱ ये भी सत्य हैं जो पुण्यात्मा साधक भक्तिमार्ग पर चलने वाले लोग होते हैं वो क़भी मृत्युभोज से नहीं कतराते वो ब्रह्मभोज प्राप्तकर मृत व्यक्ति को अपना अंश पूण्य प्रदान कर ख़ुद को धन्य बनाते हैं ।

समझें क्या एवम क्यों है मृत्यु भोज ??

भारतीय वैदिक परम्परा के सोलह संस्कारों में मृत्यु यानी अंतिम संस्कार भी शामिल है। इसके अंतर्गत मृतक के अग्नि या अंतिम संस्कार के साथ कपाल क्रिया, पिंडदान आदि किया जाता है। स्थानीय मान्यता के अनुसार तीन या चार दिन बाद श्मशान से मृतक की अस्थियों का संचय किया जाता है। सातवें या आठवें दिन इन अस्थियों को गंगा, नर्मदा या अन्य पवित्र नदी में विसर्जित किया जाता है। दसवें दिन घर की सफाई या लिपाई-पुताई की जाती है। इसे दशगात्र के नाम से जाना जाता है। इसके बाद एकादशगात्र को पीपल के वृक्ष के नीचे पूजन, पिंडदान व महापात्र को दान आदि किया जाता है। द्वादसगात्र में गंगाजली पूजन होता है। गंगा के पवित्र जल को घर में छिड़का जाता है। अगले दिन त्रयोदशी पर तेरह ब्राम्हणों, पूज्य जनों, रिश्तेदारों और समाज  के लोगों को सामूहिक रूप से भोजन कराया जाता है। इसे ही मृत्युभोज कहा जाने लगा है। यह इतना खर्चीला हो गया है कि कई दुखी परिवारों की कमर टूट जाती है वे कर्ज तक में डूब जाते हैं। मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी 

सुरक्षा का मनोविज्ञान–

पहले के समय में उपचार की व्यवस्था इतनी सुविधाजनक व सशक्त व नहीं थी। अधिकांश घर कच्चे होते थे। हैजा, कालरा जैसी घातक बीमारियों का प्रकोप फैलता था। इनसे या फिर वृद्धावस्था में बीमारी से मरने वाले व्यक्ति की देह से रोगाणु और विषाणु निकलते थे, जिनसे गंभीर बीमारियों के फैलने का खतरा रहता है। बीमारियां नहीं फैलें, इसलिए सफाई से पहले तक मृतक के परिजनों को स्पर्श करना या उसके घर जाना मना था। इसे सूतक का नाम दिया गया। जिसमें सुरक्षा का ही कवच है। जब घर का पूरी तरह शुद्धिकरण हो जाता था, तब औषधीय हवन कराकर घर के वातावरण को शुद्ध किया जाता था। इस प्रक्रिया के बाद लोग मृतक के परिवार में आना-जाना करने लगते हैं। मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी 

भोजन खिलाने का मनोविज्ञान–

प्रियजन की मृत्यु से परिवार बेहद दु:खी रहता था। अपने आत्मीय स्वजन की मृत्यु के दु:ख में कई बार परिवार के लोग बीमार व अशक्त तक हो जाते थे। सदमे में आत्मघाती कदम तक उठा लेते थे। ऐसा नहीं हो.. वे सदमे में नहीं रहें इसलिए व्यवस्था दी गई कि खास परिचत और रिश्तेदार मृतक के परिजनों के पास ही रहेंगे। रोज उसके साथ सादा भोजन करेंगे। उसे ढाढस बंधाएंगे ताकि उसका दु:ख व मन हलका हो जाए।

गरुण पुराण के अनुसार परिचितों और रिश्तेदारों को मृतक के घर पर अनाज, रितु फल, वस्त्र व अन्य सामग्री लेकर जाना चाहिए। यही सामग्री सबके साथ बैठकर ग्रहण की जाती थी। बीमारियों के कीटाणु असर न करें इसलिए किसी तरह का बघार लाना वर्जित था। उबला हुआ या फिर कंडे पर महज सादा भोजन बनाया व परोसा जाता था।

विद्वानों को भोजन कराने का  विज्ञान—

तेरहवीं में विद्वानों या ब्राम्हणों को खिलाने का नियम है। इसके पीछे भी रहस्य है। ब्राम्हण वर्ग उस समय अधिक शिक्षित होता था। वह औषधीय हवन के साथ वेदोच्चार की तरंगों के घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करता था। हवन उपचार के लिए इन्हें सदैव बुलाया जाता रहे, इसलिए इनके भोजन की व्यवस्था रख दी गई। तेरहवीं पर केवल गायत्री का जाप करने वाले यानी विद्वान और तपस्पी ब्राम्हणों को ही खिलाने का विधान है। ब्राम्हण कच्ची सामग्री यानी सीधा लेकर अपना भोजन खुद बनाते थे। महापात्र को दान के समय परिजनों को यह बताया जाता है कि हर व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है। परिजन शोक में पड़कर कोई आत्मघाती कदम न उठाएं इसलिए महापात्र के माध्यम से एक लोकाचार निभाकर उसे जीवन की सच्चाई की सीख दी जाती थी।

मृत्युभोज से एक फायदा जो मैंने अनुभव किया है वह यह है कि लोगों का आपस में मिलना जुलना हो जाता है आपसी संवाद समाज के लोगों में बना रहता है वरना आज की टीवी और इंटरनेट के कारण सोशल मीडिया की दुनिया में तो सारे रिश्ते नाते ही लोगों ने भुला से दिए हैं।

मैं सोशल मीडिया से जुड़े समस्त लोगों से निवेदन करता हूं कि कृपया ज्योतिष शास्त्र से जुड़े ब्राह्मणों और पंडितों के दिशा निर्देशों का गंभीरता के साथ एवं आवश्यक रुप से पालन करें और हमारी भारतीय संस्कृति की स्वच्छ एवं स्वस्थ परंपरा को बरकरार रखने में मदद करें और पाश्चात्य संस्कृति का समर्थन करने वालों का पुरजोर विरोध करें ताकि हम अपनी भारतीय संस्कृति को लगातार किसी न किसी रूप में लोगों को दिखाते रहे और हमारी आने वाली पीढ़ियां उससे जुड़ी रहे।

क्यों मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है मनुष्य

यहां यह बात भी विशेष ध्यान रखनी चाहिए कि  जिसकी हैसियत/औकात है वो तो मृत्यु भोज कर लेगा लेकिन जिसकी नहीं है वहां उधार ले कर करता है।जो वो काफी सालो तक चुकाता रहता है। ग्रामीणों में यह एक आम बात है। इसके साथ फिर अमल और बीडी अलग। पंडित और बाहाम्ण को जीमाना अलग बात है वो तो आप सामर्थ्य अनुसार भोजन करवा भी दोगे लेकिन पूरे गांव को जीमाना तो गलत है ना ।

शास्त्र में भी लिखा है कि भोज  खुश मन से कराना चहिए हैं।अब गरीब आदमी कर्ज लेकर मृत्यु भोज करायेगा तो बेचारा कहा से खुश होगा।और एक और बात जिस घर में किसकी मृत्यु हुई है जिसके ऊपर दुख आया है वो अपनी सारी चिंता भूलकर रूपयों का इंतजाम कर मृत्यु भोज करे यह कहा सही है।

इसके साथ साथ मैं यह भी कहना चाहता हूं कि मृत आत्मा के पीछे अपनी सामर्थ्य अनुसार दान करना, पंडितों को जीमाना (भोजन करवाना) भले कितने ही 11 या 21 जो भी आप कि सामर्थ्य हो,सही है लेकिन अपनी चादर से बाहर निकलकर बहुत से लोगों को जीमाना भले वो उसके रिश्तेदार ही क्यो ना हो, गलत है और आप जैसे सम्मानीय व्यक्ति को लोगों का उचित मार्गदर्शन करना चाहिए।

क्यों बन गया मृत्यु भोज, एक सामाजिक कलंक-??

इंसान स्वार्थ व खाने के लालच में कितना गिरता है उसका नमूना होती है सामाजिक कुरीतियां। ऐसी ही एक पीड़ा देने वाली कुरीति वर्षों पहले कुछ स्वार्थी लोगों ने भोले-भाले इंसानों में फैलाई गई थी वो है -मृत्युभोज। मानव विकास के रास्ते में यह गंदगी कैसे पनप गयी, समझ से परे है।

क्या परिवार को दरिद्रता के अँधेरे में धकेल कर मृतक की आत्मा को शांति मिल सकेगी? क्या पंडितों को विभिन्न रूप में दान देकर ही मृतक के प्रति श्रद्धांजलि होगी ,उसके प्रति संवेदन शीलता मानी जाएगी ?इस तरह के कई सवालों के घेरे में समाजिक चिंतक और परम्परागत सोच वाले पड़ चुके है।

मृत्यु के बाद दिए जाने वाले भोज में मृतक के पूज्य जनों जैसे कि गुरु, वैद्य, दामाद, समधी, बेटी व अन्य आत्मीय जनों को ही पहले भोजन कराया जाता था। उन्हें यथा शक्ति स्मृति चिन्ह दिए जाते थे। इसके पीछे रहस्य यह था कि मृतक के दुनिया से चले जाने के बाद भी उसके संबंधियों का घर से नाता बना रहे। परिवार व रिश्तेदार एकजुट रहें।

… और हमने ये कर डाला

मृत्यु भोज के नाम पर आज लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं। जबकि पुराने समय में यह केवल राजा-महाराजाओं और सक्षम लोगों के द्वारा प्रजा के लिए किया जाता था। अब हर आदमी स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगा है।

मेरे पास भी धन है… यह दिखाने के लिए लम्बा खर्च उठाया जाता है। इसके चलते लोग भी साथ में अनाज व सहयोग के लिए अन्य सामग्री लाने की परम्परा को ही भूल गए। हालांकि कि कई गांवों में अब भी यह परम्परा विद्यमान है।

यह आवश्यक नही है कि उधार लाकर भोजन करवाया जाए। शास्त्रो में उल्लेख की श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार अन्न या भोज्य सामग्री दान करे। कीट पतंगों, गाय, एवम मूक प्राणियों का भी अंश उस प्राणी के निमित्त निकाले, जिसे गौग्रास पंचग्रास से संबोधित किया जाता है।

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इस प्रकार के आयोजन की पीछे यह भी भाव है कि रिश्तेदार इकट्ठे हो , दुःख और मृत प्राणी की स्मृतियां साझा करें। दिखावे का विरोध करे, मृत्यु भोज का नही, गरुड़ पुराण के अनुसार एक वर्ष में मृत प्राणी का शरीर पुनः बनता है, और यह भोजन सूक्ष्म रूप से प्राणी तक पहुचता है। अनेक वैज्ञानिक शोध द्वारा भी यह बात प्रमाणित/सिद्ध हो चुकी हैं।

ये थी वैदिक व्यवस्था–

वैदिक परम्परा के अनुसार मृतक के घर पर आज भी लोग कपड़े आदि लेकर जातेे हैं। इसका दायरा पहले और भी व्यापक था। परिचित व रिश्तेदार क्षमतानुसार अपने घरों से अनाज, राशन, फल, सब्जियां, दूध, दही मिष्ठान्न आदि लेकर मृतक के घर पहुंचते थे। लोगों द्वारा लाई गई तरह-तरह खाद्य सामग्री ही बनाकर लोगों को खिलाई जाती थी। इसे पहले समाज के प्रबुद्धजनों यानी ब्राम्हणों को दिया जाता था और वे अपने हाथों से बनाकर भोजन ग्रहण करते थे। अब तो खास रिश्तेदार भी मात्र वस्त्र आदि लेकर मृतक के घर पहुंचते हैं। बाकी लोग सद्भावना लिए केवल खाली हाथ ही पहुंच जाते हैं।

वर्तमान में जो मृत्युभोजके नाम पर चल रहा है ,वह वास्तव में पितृश्राद्ध ‘ब्रह्मभोज’ का विकृत रूप है ,जिसका संशोधन तो अवश्य होना चाहिये ,किंतु बन्द नहीं होना चाहिये । क्योंकि श्राद्धके द्वारा ही हमारे पितरों को भोजन मिलता है । विरोध करने वालों ने कितने शास्त्र पढ़े हैं ,जो श्राद्ध आर्षग्रन्थों में नहीं है कहकर विरोध करते हैं ? सर्वप्रथम बता दूँ श्राद्ध १६ संस्कारों में नहीं है, और न ही यह १७ वा संस्कार ही है ।

जिस प्रकार सन्ध्या-गायत्री द्विजोंके लिये विहित कर्तव्य है ,लेकिन सन्ध्याका अर्थ केवल सावित्री जप ही नहीं है ,अपितु सङ्कल्प , अघमर्षण ,प्राणायाम ,गायत्रीशापविमोचन ,सूर्यार्घ ,सावित्री जप और तर्पण आदि समस्त सन्ध्या विधाके अंतर्गत ही सन्ध्या ही हैं ,सन्ध्यासे पृथक् कोई कोई अन्य विधा नहीं है ।

जिस प्रकार पाणिग्रहण संस्कार केवल वधुका हाथ वरके हाथ में दे देना ही नहीं होता ,अपितु सतपदी ,सिन्दूरदान ,लाजाहोम-कन्यादानादि भी पाणिग्रहण संस्कार विधाके अंतर्गत पाणिग्रहण संस्कार ही है , पाणिग्रहण संस्कार से पृथक् कोई संस्कार नहीं है ,उसी प्रकार १६ संस्कारों में अंतिम संस्कार अन्त्येष्टिविधा के अंतर्गत ही पिण्डदान और द्वादशा ‘ब्रह्मभोज’ है ,उससे पृथक् नहीं है ।

दुसरी बात यह है कि यह निश्चित नहीं कि संस्कार केवल 16 ही थे , अलग अलग ऋषियों ने संस्कारों की संख्या अलग अलग लिखी हैं । महर्षि गौतमने गौतम धर्मसूत्रमें ‘ ४८ संस्कारोंका उल्लेख किया है । महर्षि अङ्गिराने २५ संस्कार गिनाये हैं , वैखानसगृह्यसूत्रमें १८ संस्कारोंका उल्लेख है ,तो वहीं जातूकर्ण्यने ,जैमिनी और व्यासजी ने १६ संस्कारोंका उल्लेख किया है ।

पारास्करगृह्यसूत्र और वाराहगृह्यसूत्र में १३ संस्कारों का उल्लेख है तो वहीं आश्वलायनगृह्यसूत्र में मात्र १० संस्कारोंका ही उल्लेख है । इसीलिए देशकालमें संस्कारोंका लोप हो जाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं । आद्ययुग से ४८ संस्कार रहे हैं इसका उल्लेख ‘ संस्कारः अष्टचत्वारि’ वचनसे स्पष्ट है ।

मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी

अनेकों शास्त्रों में इसका विधान है ,लेकिन हम उन्ही ग्रन्थों से प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं ,जिसके द्वारा १६ संपादित होते हैं ,और वे ग्रन्थ हैं षड्वेदाङ्गोंमें एक कल्पसूत्र । कल्पसूत्रों में गृह्यसूत्रोंमें ही १६ संस्कारोंका विधान मिलता है ,जिन्हें मन्वादि समस्त ऋषियों ने अपने स्मृति ग्रन्थों में उद्धृत किया है , यजुर्वेदके पारस्कर गृह्यसूत्र में अन्त्येष्टि संस्कारविधा में ” एकादश्यामयुग्मान् ब्राह्मणान् भोजयित्वा “( ३/१०/४८) ,” प्रेतायोद्दिश्य गामप्येके घ्नन्ति ।।” (३/१०/४९) – (दाहसंस्कारके) ‘ ग्यारहवे दिन विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराएं ।

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मृतकके उद्देश्य से गवालम्भन भी करना चाहिये । ‘ हरिहरभाष्यम् — “एकादश्यामेकादशेऽहनि ब्राह्मण: कर्ता चेत् आयुग्मान् त्रिप्रभृतिविषमसङ्ख्याकान् द्विजोत्तमान् भोजयित्वा भोजनं कारयित्वा एकोद्दिष्टश्राद्धविधिना ” में स्पष्ट उल्लेख कर रहे हैं । “कर्तव्यं विप्रभोजनम् ।

प्रेता यान्ति तथा तृप्तिं बन्धुवर्गेण भुञ्जता ।। “(विष्णु पुराण ३/१३/१२)

पितरोंके निमित्त किये जाने वाले कर्म को श्राद्ध कहते हैं – “देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत् । तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्यच्छ्र्द्धया युतम् ।।(ब्रह्मपुराण)

कात्यायन श्रौतसूत्र में बताया गया है कि जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो ,किन्तु पितामह जीवित हो ,तो वह व्यक्ति पिता को पिण्ड देकर पितामह को छोड़कर उनसे पूर्व के पूर्वज प्रपितामह और वृद्धपितामह को पिण्ड दे –

“पिता प्रेत: स्यात् पितामहो जीवेत् पित्रे पिण्डं निधाय पितामहात् पराभ्यां द्वाभ्यां दद्यात् ।”(का०श्रौ०सू०) भगवान् मनुकी भी इसमें उपपत्ति है –

“पिता यस्य निवृत्त: स्याज्जोवेच्चापि पितामह: ।

पितु: स नाम सङ्कीर्त्य कीर्तयेत् प्रपितामहम् ।।”(मनु ३/२२१)

यह सत्य है कि मृतकके परिजन शोक सन्तप्त होते हैं , उनके अश्रु कोई रोक नहीं सकता । किन्तु यह भी सत्य है , जो लोग आत्मा को अविनाशी और नश्वर समझते हैं ,पुनर्जन्मके सिद्धांत को मानते हैं , वे अन्त्येष्टि संस्कार की किसी भी विधिमें अश्रु नहीं बहाते हैं ,क्योंकि वे ऐसा मानते हैं ,उन अश्रुओं से जीवात्मा दुःखी होता है । और जीवात्माकी तृप्तिके लिये ही पिण्ड और श्राद्ध दिया जाता है ।

जिसके परिजनकी मृत्यु हुई होती है , वह अपने मृतक परिजनको मरण उपरान्त भी उसे अतृप्त नहीं रखना चाहते हैं ,उसके भोजन के लिये ही द्वादशा और त्रियोदशा में ब्राह्मणके द्वारा अपने मृतक परिजन को भोजन कराते हैं । जब अपने ही मृतकके सन्तुष्टिके लिये पिण्डदान-ब्रह्मभोज कराया जाता है ,उसे खिलाने में परिजनों के अश्रु क्यों निकलेंगे ?

लकड़ी काटते समय ,आटा गूथते समय या भोजन बनाते समय क्यों अश्रु बहायेंगे ?

जब वे जानते हैं ,हमारे इस पिण्डदान-द्वादशा आदि विधि से मृतक परिजन ही तृप्त होगा । कपाल क्रियाके अनन्तर ही जोर से रोनेका शास्त्र में विधान है , उससे मृत प्राणीको शुख मिलता है ,अन्य और्ध्वदेहिक क्रिया , पिण्डदान और द्वादशामें अश्रु नहीं बहाते हैं ,परिजन वे जानते हैं हमारे मृतक परिजन को इससे तृप्ति मिलेगी ,इसलिये अन्त्येष्टि संस्कारमें अश्रु बहाना निषेध है , मृतक की सद्गति की प्रार्थना करनी चाहिये –

श्लेशमाश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवश: । अतो न रोडितव्यं हि क्रिया: कार्या: स्वशक्तित: “(याज्ञवल्क्य स्मृति,-गरुड़पुराण ) -” पितुः पिण्डादिकं कुर्यादश्रुपातं न कारयेत् ।”(गरुड़पुराण ११/३)

भगवान् मनु ने भी श्राद्धके समय अश्रु बहाना निषेध किया है -” नास्रमापातयज्जातुन ” (३/२२९) , “अस्रं गमयति प्रेतान् “(३/२३०) ।

मनुजी ने शोक संतप्त परिजनोंको शोक निवारणके लिये रामायण-महाभारत, इतिहास-पुराण-हरिवंश पुराण आदि धर्म शास्त्रोंके श्रवणका विधान किया है – “स्वाध्यायं श्रावयेत्पित्र्ये धर्मशास्त्राणि चैव हि ।

आख्यानानीतिहासांश्च पुराणानि खिलानि च ।। “(मनु ३/२३२)

श्राद्ध खिलाने की आवश्यकता क्यों है ? श्रुतिका वचन है –

“इडमोदनं नि दधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणं लोकजितं स्वर्गम् ।”(अथर्ववेद ४/३८/८)

अर्थात् – ‘इस ओदनोपलक्षित (चावलके भात) भोजन को ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूँ । यह भोजन विस्तारसे मुक्त है और स्वर्गलोक को जीतने वाला है ।’

शतपथब्राह्मणकी श्रुति कहती है – “तिर इव वै पितरो मनुष्येभ्यः “(२/३/४/२१) -‘सूक्ष्म शरीर धारी होने से पितर मनुष्य में छिपे रहते हैं ।’

मनुजी का भी यही मानना है –

“यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकस: ।

कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं तत: ।।”(१/९५) -‘ब्राह्मणके मुखसे देवता हव्यको और पितर कव्यको खाते हैं । ‘ इसीलिए पितरों को दिया जाने वाला कव्य ,ब्राह्मण के द्वारा ही पितरों को तृप्त करता है । मृतकका दूसरी किसी भी योनि में जन्म हुआ हो अथवा वह अतृप्त भटकती आत्मा ही हो , कुलगोत्रके उच्चारण मन्त्रों सहित ब्राह्मण को खिलाये गये ,कव्य रूपी श्राद्ध से ,मृतक किसी भी लोकमें हो ,किसी भी योनि में हो वह भोजन रूपी योनिके जीव के अनुरूप होकर उसे प्राप्त होता है । जैसे गाय-घोड़े का जन्म मिला हो तो घास के रूप में, मनुष्य का जन्म मिला हो तो दुग्ध भोजन आदिके रूप में । मृत्यु भोज क्यूँ जरुरी 

“नाम गोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नायन्ति तम् । अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति ।।”।(वायुपुराण ८३/१२०)

।।शुभम भवतु।।

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